मंगलवार, 7 नवंबर 2017

उपेंद्र नाथ अश्क ऐसे थे पापा जी

** अविस्मरणीय
उपेंद्रनाथ अश्क 
ऐसे थे पापा जी
आज साहित्यकारों की तस्वीरों का एलबम देखते हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय उपेंद्रनाथ अश्क की यह तस्वीर  दिखाई पड़ी और उनके साथ बिताए वक्त की बहुत सी यादें ताजा हो आयी।  अश्क जी की यह तस्वीर मैंने उनके घर पर उतारी थी । उस जमाने में मैं फोटोग्राफी सीख रहा था इसलिए मेरे लिए यह तस्वीर सबसे अच्छी तस्वीर थी । अश्क जी को भी बहुत पसंद आई थी।  उस जमाने में अश्क जी एक ऐसी शख्सियत थे जिनके बगैर इलाहाबाद के साहित्यकारों पर चर्चा संभव नहीं थी । अपने मित्र नीलाभ के रिश्ते से मैं भी उन्हें पापा जी के अलावा कोई और संबोधन देने का साहस नहीं कर पाया । जब कभी उनके घर जाता तो ढेर सारी बातें होती । जिन पुस्तकों की 2-3 प्रतियां उनके पास होती उनमें से कुछ पुस्तकें वह हमें पढ़ने के लिए बिना  मांगे दे देते थे । उनके यहां जाने पर बहुत सी लघु पत्रिकाएं भी प्राप्त होती थी इसलिए हम सप्ताह में दो एक चक्कर उनके घर का मार दिया करते थे । अश्क जी बहुत जिंदादिल थे और जिसे प्यार करते थे , बेइंतहा प्यार करते थे और हर वक्त उसकी तरक्की के बारे में सोचते थे । लिखना पढ़ना लोगों की रचनाओं पर चर्चा करना यह उनकी आदत में शुमार था । दूसरे क्या लिख रहे हैं इसे जानने की जिज्ञासा उन्हें हमेशा रहती थी । नए लेखकों को बहुत प्यार करते थे । साहित्यिक कार्यक्रमों में उनकी उपलब्धता सहज ही हो जाती थी । हम लोग जब उनके घर जाते हैं तो कभी-कभी कौशल्या जी भी हमारे साथ आकर बैठ जाया करती थी । हम आग्रह करते तो अपनी नई कहानियां भी सुनाती  अश्क जी से हम कविताएं सुनते और उन्हें अपनी कविताएं सुनाते । उनकी बेबाक राय हमें बहुत हौसला देती  अश्क जी पढ़ते खूब थे इसीलिए इलाहाबाद में उनसे ज्यादा साहित्य में अपडेट बहुत कम लोग थे । नीलाभ की गिनती भी नौजवान लेखकों मैं होती थी  । अश्क जी साहित्य आलोचना में सब का मुकाबला कर लेते थे लेकिन वह नीलाभ की खरी और बेबाक आलोचना से बहुत घबराते थे यद्यपि पापा जी के प्रति नीलाभ के मन में जैसा सम्मान का भाव था वैसा बहुत कम देखने में आता है । यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ भी रहे हो अश्क जी नीलाभ के बाप थे  । कोई बच्चा अपने बाप का बाप नहीं हो सकता  । अश्क जी को समझना कभी आसान नहीं रहा । हम सब तो उनके मुरीद थे । उनके स्कूल के छात्र और हमें उनका छात्र बना रहने में ही सुख मिलता था  । अश्क जी रोज लिखते थे । नियम से लिखते थे और एक विचित्र बात यह थी क़ि अश्क जी खड़े होकर लिखते थे । एक मेज बड़े करीने से दीवार से सटाकर विशेष डिजाइन के साथ बनाई गई थी । इस मेज के करीब खड़े होकर लिखने का अश्क जी का अभ्यास था । थक जाते तो थोड़ा टहलते वही अपनी स्टडी में कोई किताब लेकर बैठ जाते मिलने वाले आ गए तो थोड़ा गपशप करते थें फिर तरोताजा होकर लिखने की मेज के पास खड़े हो जाते । उनकी कृतियों में उनकी प्रतिभा तो दिखाई ही देती है उनका परिश्रम भी बोलता है । मैं अपने जीवनकाल में अश्क जी से बहुत बार मिला  । माया के दफ्तर आया करते थे अश्क जी अमरकांत जी और भैरव प्रसाद गुप्त से मिलने के लिए । वहां हमारे पास भी आकर बैठ जाया करते थे । कथाकार  स्वर्गीय अमर गोस्वामी को अश्क जी बहुत प्यार करते थे । मैं उन दिनों माया मैं ही था तो उनसे बातचीत का अवसर मुझे भी मिल जाता था । बहुत अच्छा लगता था जब वह बड़े प्यार से कहते थे तू अच्छी कविताएं लिख रहा है । खूब पढ़ा कर । अच्छा पढ़ेगा तो थोड़ा सा अच्छा लिखेगा । उनकी यह बात मुझे आज तक याद है । मुझे तो ना आज तक अश्क जी भूले हैं और ना उनकी बातें । फिर कभी अवसर आया तो उनकी और भी बातें आपकोबताऊंगा।
** अजामिल
चित्र अजामिल

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